Friday, August 29, 2014

भीड़ भरी इन राहों पर चलते-चलते

भीड़ भरी इन राहों पर चलते-चलते
कभी हमनें खुद को बहुत अकेला पाया
अपने सपनों का बोझ ढोते-ढोते
कदमों को हर कदम लड़खड़ाता पाया

सपनों को हकीकत बनाने की चाह में
हकीकत को खुद से जुदा पाया
ख्वाब-ख्वाब रह गये, हौंसले यूँ ढह गये
तन्हाइयों में अश्रुओं को निर्झर बहता पाया

महलों में बसने की चाह में
अपने आशियें को कुछ उजड़ता पाया
जो निकले थे सफ़र पर मंजिल पाने
खुद को अब अपने घर से जुदा पाया

नींद तो बहुत थी आँखों में
‘बस कुछ रात और’ सोच खुद को बहलाया
अभी तो मेहनत करने का वक्त हैं
यह सोच कर रोज-रोज खुद को जगाया

अब जब कुछ ख्वाब टुटे है
तो उनकी किरचों को खुद में चुभाया
खुद के ही सपनों से जो हार बैठे
तो हर दर्द को अब खुद में समाया

जमाने की हँसी तो सुन ही रहे थे
अपनी उँगली को भी खुद पर उठाया
गुनाह चाहे किसी का भी हो
दोषी तो हमने खुद को ठहराया

क्यों हम ये भूल बैठे
कि जिंदगी एक ठहराव नहीं
यह एक पड़ाव नहीं
इसमें कोई बिखराव नहीं
यह तो एक बहती सी दरिया है
हर हार कुछ सीखने का जरिया है
क्यों थक बैठें कुछ ठोकरों पर
लंबी मगर खुशनुमा यह डगरिया है

हर हार कुछ सीखा जाती है
थोड़ा दुख तो थोड़ा तजुर्बा दे जाती है
भीड़ में खुशियॉ ना मना पाये तो क्या
कुछ दोस्तों को ही करीब ले आती है

वक्त यें हताश होने का नहीं
खुद से निराश होने का नहीं
माना बड़ी है ये मायूसियाँ
खुद को खुद से खोने का नहीं

हे उजला सवेरा हर काली रात के बाद
हे इन्द्रधनुष घनघोर बरसात के बाद
जरा संयम रखना कुछ देर और
हे जीत ही जीत कुछ मात के बाद

अपने हौंसलो की लो को
अविश्वास के थपेड़ों से बचाये रखना
अपने अत:मन की गहराइयों को
उम्मीदों की किरण से जलाये रखना

हम तो लंबी यात्रा के मुसाफ़िर है
ये चंद थपेड़े क्या हमें डगमगायेंगे
एक दिन हमारे हौंसलो की मशाल से
हमारे हर एक रास्तें जगमगायेंगे







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